कविता- अब्दुर रहमान राही -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Abdur Rehman Rahi
अनजाने में उतावला हो कूद पड़ा मैं
निगल गयी आलोक गहनता
प्रकाश समा गया अँधियारे में
और अन्त में देखा मैंने तलातल में ज्योतिर्मय वह
एक अकेला शब्द
एक अकेले मुक्ताहल के अन्तर में दुलराया जाता
ज्वाला, सरोज और वानर
संज्ञा-संज्ञा को छल गयी राख!
तुम्हारे दाँत भी थे तेज़ चमकीले
नुकीले थे नाखून मेरे भी
रक्त भी मल लिया
औ’ किया नृत्य भी
घुमर-घुमर लहर-उफान और
तट पर धूप सेंकी ख़ूब
रसीली तन्द्रा
भरपूर सोये
पीठ, पहाड़ी पर कुहरा खिला
कि पद-तल भूल गये, ऐसा;
मैं खोजता क्या?
पूछता नाम किससे?
फ़रिश्तों ने क्रोध मेरा चबा डाला
द्वेष दफ़नाया
और फिर जब चिलचिलायी धूप
परिवेश या रिक्तता, जो चूक गयी थी
और अब है यह एक अदृश्य बंसी,
और उसी का अदृश्य काँटा,
किसी अजाने हाथ के खींचने से
मेरा टेंटुआ जैसे कुरेदे जाता
फरिश्तों के क्या उग आएँगे खंजर-खंजर दाँत,
मनमूरत के क्या बढ़ आएँगे नख नेज़ों की सूरत?
खीझ-खीझ खून के फव्वारे छुड़ाता मैं
घृणा-घृणा! मैं जंगल-जंगल करता पागल-नर्तन
ज्वाला को, सरोज बनते-बनते,
वानर करता ग्रास
सागर-तल में फिर पा लेता वही चमकता शब्द!