एक और अनन्त- राजेन्द्र केशवलाल शाह -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Rajendra Keshavlal Shah
अपनी इस गवाक्ष-गोष्ठी का एक साक्षी है आकाश।
खुले न-खुले होठ की
भले हो तो भी
नेत्र में पल-पल चमकती
वर्ण की फैलती है किरण
जो कुछ दिखता है वह है शब्द का प्रकाश।
तुम्हारे मेरे होठों पर, देखो प्रिय भीगी झलक।
नाभि के गहन नीर में स्फुरित
तरंग की हिलोर का तट को हुआ स्पर्श।
हम दो एक और अनन्त।
उसके निःसीम आनन्द से परिणत देखो उत्कर्ष ।
शून्य की सभरता को, अहो नेत्र पाए अपलक।
नेत्र से संलग्न नेत्र, अधर से अधर…
इस आनन्त्य में अब यहाँ कौन है अपर…
अनुवाद : डॉ. मृदुला पारीक
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