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एकांत-संगीत -हरिवंशराय बच्चन -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Harivansh Rai Bachchan Part 7
ओ अँधेरी से अँधेरी रात
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
आज गम इतना हृदय में,
आज तम इतना हृदय में,
छिप गया है चाँद-तारों का चमकता गात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
दिख गया जग रूप सच्चा
ज्योति में यह बहुत अच्छा,
हो गया कुछ देर को प्रिय तिमिर का संघात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
प्रात किरणों के निचय से,
तम न जाएगा हृदय से,
किसलिए फिर चाहता मैं हो प्रकाश-प्रभात!
ओ अँधेरी से अँधेरी रात!
मेरा भी विचित्र स्वभाव
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
लक्ष्य से अनजान मैं हूँ,
लस्त मन-तन-प्राण मैं हूँ,
व्यस्त चलने में मगर हर वक्त मेरे पाँव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
कुछ नहीं मेरा रहेगा,
जो सदा सबसे कहेगा,
वह चलेगा लाद इतना भाव और अभाव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
उर व्यथा से आँख रोती,
सूज उठती, लाल होती,
किन्तु खुलकर गीत गाते हैं हृदय के घाव!
मेरा भी विचित्र स्वभाव!
डूबता अवसाद में मन
डूबता अवसाद में मन!
यह तिमिर से पीन सागर,
तल-तटों से हीन सागर,
किंतु हैं इनमें न धाराएँ, न लहरें औ’, न कम्पन!
डूबता अवसाद में मन!
मैं तरंगों से लड़ा हूँ,
और तगड़ा ही पड़ा हूँ,
पर नियति ने आज बाँधे हैं हृदय के साथ पाहन!
डूबता अवसाद में मन!
डूबता जाता निरंतर,
थाह तो पाता कहीं पर,
किंतु फिर-फिर डूब उतराते उठा है ऊब जीवन!
डूबता अवसाद में मन!
उर में अग्नि के शर मार
उर में अग्नि के शर मार!
जब कि मैं मधु स्वप्नमय था,
सब दिशाओं से अभय था,
तब किया तुमने अचानक यह कठोर प्रहार,
उर में अग्नि के शर मार!
सिंह-सा मृग को गिराकर,
शक्ति सारे अंग की हर,
सोख क्षण भर में लिया निःशेष जीवन सार,
उर में अग्नि के शर मार!
हाय, क्या थी भूल मेरी?
कौन था निर्दय अहेरी,
पूछते हैं व्यर्थ उर के घाव आँखें फाड़!
उर में अग्नि के शर मार!
जुए के नीचे गर्दन डाल
जुए के नीचे गर्दन डाल!
देख सामने बोझी गाड़ी,
देख सामने पंथ पहाड़ी,
चाह रहा है दूर भागना, होता है बेहाल?
जुए के नीचे गर्दन डाल!
तेरे पूर्वज भी घबराए,
घबराए, पर क्या बच पाए,
इसमें फँसना ही पड़ता है, यह विचित्र है जाल!
जुए के नीचे गर्दन डाल!
यह गुरु भार उठाना होगा,
इस पथ से ही जाना होगा;
तेरी खुशी-नाखुशी का है नहीं किसी को ख्याल!
जुए के नीचे गर्दन डाल!
दुखी-मन से कुछ भी न कहो
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
व्यर्थ उसे है ज्ञान सिखाना,
व्यर्थ उसे दर्शन समझाना,
उसके दुख से दुखी नहीं हो तो बस दूर रहो!
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
उसके नयनों का जल खारा,
है गंगा की निर्मल धारा,
पावन कर देगी तन-मन को क्षण भर साथ बहो!
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
देन बड़ी सबसे यह विधि की,
है समता इससे किस निधि की?
दुखी दुखी को कहो, भूल कर उसे न दीन कहो?
दुखी-मन से कुछ भी न कहो!
आज घन मन भर बरस लो
आज घन मन भर बरस लो!
भाव से भरपूर कितने,
भूमि से तुम दूर कितने,
आँसुओं की धार से ही धरणि के प्रिय पग परस लो,
आज घन मन भर बरस लो!
ले तुम्हारी भेंट निर्मल,
आज अचला हरित-अंचल;
हर्ष क्या इस पर न तुमको-आँसुओं के बीच हँस लो!
आज घन मन भर बरस लो!
रुक रहा रोदन तुम्हारा,
हास पहले ही सिधारा,
और तुम भी तो रहे मिट, मृत्यु में निज मुक्ति-रस लो!
आज घन मन भर बरस लो!
स्वर्ग के अवसान का अवसान
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
एक पल था स्वर्ग सुन्दर,
दूसरे पल स्वर्ग खँडहर,
तीसरे पल थे थकिर कर स्वर्ग की रज छान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
ध्यान था मणि-रत्न ढेरी
से तुलेगी राख मेरी,
पर जगत में स्वर्ग तृण की राख एक समान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
राख मैं भी रख न पाया,
आज अंतिम भेंट लाया,
अश्रु की गंगा इसे दो बीच अपने स्थान!
स्वर्ग के अवसान का अवसान!
यह व्यंग नहीं देखा जाता
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
निःसीम समय की पलकों पर,
पल और पहर में क्या अंतर;
बुद्बुद की क्षण-भंगुरता पर मिटने वाला बादल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
दोनों अपनी सत्ता में सम,
किसमें क्या ज्यादा, किसमें कम?
पर बुद्बुद की चंचलता पर बुद्बुद जो खुद चंचल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
बुद्बुद बादल में अन्तर है,
समता में ईर्ष्या का डर है,
पर मेरी दुर्बलताओं पर मुझसे ज्यादा दुर्बल हँसता!
यह व्यंग नहीं देखा जाता!
तुम्हारा लौह चक्र आया
तुम्हारा लौह चक्र आया!
कुचल चला अचला के वन घन,
बसे नगर सब निपट निठुर बन,
चूर हुई चट्टान, क्षार पर्वत की दृढ़ काया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
अगणित ग्रह-नक्षत्र गगन के
टूट पिसे, मरु-सिसका-कण के
रूप उड़े, कुछ घुवाँ-घुवाँ-सा अंबर में छाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
तुमने अपना चक्र उठाया,
अचरज से निज मुख फैलाया,
दंत-चिह्न केवल मानव का जब उस पर पाया!
तुम्हारा लौह चक्र आया!
हर जगह जीवन विकल है
हर जगह जीवन विकल है!
तृषित मरुथल की कहानी,
हो चुकी जग में पुरानी,
किंतु वारिधि के हृदय की प्यास उतनी ही अटल है!
हर जगह जीवन विकल है!
रो रहा विरही अकेला,
देख तन का मिलन मेला,
पर जगत में दो हृदय के मिलन की आशा विफल है!
हर जगह जीवन विकल है!
अनुभवी इसको बताएँ,
व्यर्थ मत मुझसे छिपाएँ;
प्रेयसी के अधर-मधु में भी मिला कितना गरल है!
हर जगह जीवन विकल है!