आनन्द मंजरी -मुकरी संग्रह-त्रिलोक सिंह ठकुरेला -Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita By Trilok Singh Thakurela Part 3
उस से ही यह धरा सुहानी।
वह न रहे तो खत्म कहानी।
तू भी कब है, कम दीवानी।
क्या सखि, साजन? ना सखि, पानी।
रात हुई तो घर में आया।
सुबह हुई तब कहीं न पाया।
कभी न वह हो पाया मेरा।
क्या सखि, साजन? नहीं, अँधेरा।
तन से लिपटे, मन को भाये।
मन में अनगिन खुशियाँ लाये।
उसके बिना न चलती गाड़ी।
क्या सखि, साजन? ना सखि, साड़ी।
खरी खरी वह बातें करता।
सच कहने में कभी न डरता।
सदा सत्य के लिए समर्पण।
क्या सखि, साधू? ना सखि, दर्पण।
हाट दिखाये, सैर कराता।
जो चाहूँ वह मुझे दिलाता।
साथ रहे तो रहूँ सहर्ष।
क्या सखि, साजन? ना सखि, पर्स।
जब देखूं तब मन हरसाये।
मन को भावों से भर जाये।
चूमूँ, कभी लगाऊँ छाती।
क्या सखि, साजन? ना सखि, पाती।
रातों में सुख से भर देता।
दिन में नहीं कभी सुधि लेता।
फिर भी मुझे बहुत ही प्यारा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, तारा।
मुझे देखकर लाड़ लड़ाये।
मेरी बातों को दोहराये।
मन में मीठे सपने बोता।
क्या सखि, साजन? ना सखि, तोता।
सबके सन्मुख मान बढ़ाये।
गले लिपटकर सुख पंहुचाये।
मुझ पर जैसे जादू डाला।
क्या सखि, साजन? ना सखि, माला।
जब आये तब खुशियाँ लाता।
मुझको अपने पास बुलाता।
लगती मधुर मिलन की बेला।
क्या सखि, साजन? ना सखि, मेला।
पाकर उसे फिरूँ इतराती।
जो मन चाहे सो मैं पाती।
सहज नशा होता अलबत्ता ।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सत्ता।
मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।
जब चाहे गालों को चूमे।
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।
क्या सखि, साजन? ना सखि, झुमका।
वह सुख की डुगडुगी बजाये।
तरह तरह से मन बहलाये।
होती भीड़ इकट्ठी भारी।
क्या सखि, साजन? नहीं, मदारी।
जब आये, रस-रंग बरसाये।
बार बार मन को हरसाये।
चलती रहती हँसी-ठिठोली।
क्या सखि, साजन? ना सखि, होली।
मेरी गति पर खुश हो घूमे।
झूमे, जब जब लहँगा झूमे।
मन को भाये, हाय, अनाड़ी।
क्या सखि, साजन? ना सखि, साड़ी।
बिना बुलाये, घर आ जाता।
अपनी धुन में गीत सुनाता।
नहीं जानता ढाई अक्षर।
क्या सखि, साजन? ना सखि, मच्छर।
रंग-रूप पर वह बलिहारी।
प्रेम लुटाता बारी बारी।
रस का लोभी करता दौरा।
क्या सखि, साजन? ना सखि, भौंरा।
उससे जीवन सुखमय चलता।
वह न रहे तो जीवन खलता।
कैसे कहूँ कि रिश्ता कैसा।
क्या सखि, प्रेमी? ना सखि, पैसा।
करता हरित, लुटा खुशहाली।
भरता मन की गागर खाली।
मेरे लिए बहुत मनभावन।
क्या सखि, साजन? ना सखि, सावन।
मेरे आगे पीछे फिरता।
जैसा चाहूँ, वैसा करता।
मेरा मन मोहे, मृदुभाषी।
क्या सखि, साजन? ना, चपरासी।
गले लिपट अतिशय सुख देती।
तन-मन खुशबू से भर देती।
रूप सुहावन, भोला भाला।
क्या सखि, बिटिया? ना सखि, माला।
करता रहता काम अमानी।
जब माँगूँ तब लाये पानी।
चिकना सिर है, मुख है छोटा।
क्या सखि, नौकर? ना सखि, लोटा।
आलिंगन में वह भर लेती।
तन मन दोनों को सुख देती।
रहती है बनकर हमजोली।
क्या सखि, माँ है? ना सखि, चोली।
जब जब आती दुःख से भरती।
पति के रुपये पैसे हरती।
उसकी आवक रास न आई।
क्या सखि, सौतन? ना, महँगाई।
उस पर मोहित दुनिया सारी।
उस बिन चले न दुनियादारी।
उससे मिलती, हिम्मत भारी।
क्या प्रिय, रुपया? ना प्रिय, नारी।
गोल गोल है, सबका प्यारा।
जो भी देखे लगे दुलारा।
जिसे न भाये, मूरख बंदा।
क्या सखि, सिक्का? ना सखि, चंदा।
दुनिया भर में मान बढ़ाये।
भाग्यवान ही उसको पाये।
मन्दभाग्य जो करे अनिच्छा।
क्या सखि, कुर्सी? ना सखि, शिक्षा।
साथ मिले तो साथी झूमे।
पागल करके धरती चूमे।
और अकल पर डाले ताला।
क्या सखि, जोकर? ना सखि, हाला।
जब भी चाहूँ, हाट कराता।
सारी चीजें खुद ही लाता।
हाथ पकड़कर चलता छैला।
क्या सखि, साजन? ना सखि, थैला।
सखि, उसका तन बड़ा गठीला।
पर अंदर से बड़ा रसीला।
सिर पर पगड़ी, हाथ न पन्ना।
क्या सखि, साजन? ना सखि, गन्ना।