आत्मकथा-आवाज़ों के घेरे -दुष्यंत कुमार-Hindi Poetry-हिंदी कविता -Hindi Poem | Hindi Kavita Dushyant Kumar
आँख जब खोली मैंने पहले-पहल
युग-युगान्तरों, का तिमिर
घनीभूत
सामूहिक
सामने खड़ा पाया ।
साँस जब ली मैंने
सदियों की सड़ाँध
वायु-लहरों पर जम-जमकर
जहर बन चुकी थी ।
पाँव जिस भूमि पर रखा उसको पदमर्दित,
अनवरत प्रनीक्षाहत,
शंकाकुल,
कातर,
कराहते हुए देखा
शापग्रस्त था मेरे ही माथे का लेखा !
मिला नहीं कोई भी सहयोगी
अपना पुंसत्वबोध खोये क्षत, संज्ञाहत
सिक्कों से घिसे औ’ गुरुत्वहीन
ऐसे व्यक्तित्व मिले
जिन्हें अपनाने में तिलमिला गया मैं ।
परिचय घनिष्ठ हो गया लेकिन इन सबसे
कैसे नकारूँ इन्हें या अस्वीकारूँ आज
ये मेरे अपने हैं
मेरी ही आत्मा के वंशज हैं ।
इन्हें इसी धरती ने
इसी वातावरण ने
इसी तिमिर ने अंग-भंग कर दिया है ।
सच है
अब ये अकुलाते नहीं,
बोलते गाते नहीं,
दुखते जलते हैं,
इंच-इंच गलते हैं,
किन्तु कभी चीखते नहीं ये
चिल्लाते नहीं,
अधर सी दिये हैं इनके
बड़े-बड़े तालों ने
जिन्हें मर्यादा की चाबियाँ घुमाती हैं ।
किन्तु मैं अकुलाया
चीखा-चिल्लाया भी
नया-नया ही था…दुख सहा नहीं गया
मौन साध लेता कैसे
रखकर मुंह में ज़बान
प्रश्न जब सुने
आहत, विह्वल मनुष्यता के
उत्तर में मुझसे चुप रहा नहीं गया ।
किन्तु मैं कवि हूँ कहाँ
कहाँ किसे मिलती है मेरी कविताओं में
इन्द्रजुही सपनों की
रूप और फलों की
सतरंगी छवियों की
स्निग्ध कलित कल्पना;
…लगता है
मैं तो बस जल-भीगा कपड़ा हूँ
जिसको निचोड़फर मेरी ये कविताएँ
उष्ण इस धरती के ऊपर छिड़क देती हैं…
कविताएँ माध्यम हैं शायद
उस ऋण को लौटाने का
जो मैंने तुम सबसे लिया है
मिञो,
मेरी प्रशंसा क्यों करते हो
मैंने क्या किया है !
फिर भी
लेकिन फिर भी
लोगों ने मुझे कवि पुकारा
उद्धत, अविनीत नहीं
क्योंकि
यद्यपि वे मौन रहे
किन्तु उन ही की भावनाओं को
वाचा दी मैंने
उन सबकी ध्वनियों को
गुंजरित वितरित किया
और पूछना जो चाहते थे वे
वही प्रश्न
मैंने प्रतिध्वनित किया
चारो दिशाओं में ।
सच है ये
उत्तर अभी नहीं मिला
किन्तु मैं चुपा भी नही,
मच है ये
अब तक रण अनिर्णीत
किन्तु मैं थका भी नहीं ।
जारी हैं सारे सम्भव प्रयत्न
जारी रहेंगे ।
ये ही प्रश्न गूँजेंगे
सत्य के लिए भटकती आत्मा की तरह
गूँजते रहेंगे ये ही प्रश्न
वर्षों के अन्तराल में…जब तक
उत्तर न पा लेंगे ।