असंदिग्ध एक उजाला-त्रिकाल संध्या-भवानी प्रसाद मिश्र-Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita Bhawani Prasad Mishra
असंदिग्ध एक उजाला
टूटा बिजली बन कर
शिखर पर मेरी दृष्टि के
और डर कर मैंने
बंद कर ली अपनी आँखें
जब खोली आँखें तो देखा
कि देख नहीं पातीं मेरी आँखें अब कुछ भी
सिवा उस असंदिग्ध उजाले के
और दिखता है वह भी
आँखों के आगे अँधेरा छा जाने पर
अंधेरे में तैरने वाली चिन्गारियों की तरह
असंदिग्ध यह उजाला
जो केवल अब चिंनगारियों में दिख़ता है
दिखा नहीं पाता कुछ भी!