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अपनी भाषा | मेरी भाषा – मैथिलीशरण गुप्त–Hindi Poetry-कविता-Hindi Poem | Kavita
अपनी भाषा
करो अपनी भाषा पर प्यार ।
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार ।।
जिसमें पुत्र पिता कहता है, पतनी प्राणाधार,
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार ।
बढ़ायो बस उसका विस्तार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
भाषा विना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दानों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान ।
असंख्यक हैं इसके उपकार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुमहारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद ।
बनाओ इसे गले का हार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
मेरी भाषा
मेरी भाषा में तोते भी राम राम जब कहते हैं,
मेरे रोम रोम में मानो सुधा-स्रोत तब बहते हैं ।
सब कुछ छूट जाय मैं अपनी भाषा कभी न छोड़ूंगा,
वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोड़ूंगा ।।
कहीं अकेला भी हूँगा मैं तो भी सोच न लाऊंगा,
अपनी भाषा में अपनों के गीत वहाँ भी गाऊंगा।।
मुझे एक संगिनी वहाँ भी अनायास मिल जावेगी,
मेरा साथ प्रतिध्वनि देगी कली कली खिल जावेगी ।।
मेरा दुर्लभ देश आज यदि अवनति से आक्रान्त हुआ,
अंधकार में मार्ग भ्रूळकर भटक रहा है भ्रान्त हुआ।
तो भी भय की बात नहीं है भाषा पार लगावेगी,
अपने मधुर स्निग्ध, नाद से उन्नत भाव जगावेगी ।।